राम-राम नहीं, रावण जी कहिए ना रावण दहन ना दशहरा मान्यता ऐसी कि सोने की दुकान खोली तो शिवलिंग सा काला हो जाएगा सोना
राम की धरती पर रावण जी। यहां ना कोई दशहरा मनाता है और ना रावण दहन होता है। दूसरे शहरों में या टीवी पर भी रावण दहन दिख जाए, तो लोग मुंह फेर लेते हैं, टीवी बंद कर देते हैं। अगर किसी की जुबान से रावण निकल जाए, तो लोग नाराज हो जाते हैं। वे रावण को रावण जी कहते हैं।
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यहां कोई सोने की दुकान भी नहीं खोलता। मान्यता ये कि जिसने भी दशहरा मनाया उसकी जान चली जाती है। जिसने सोने की दुकान खोली उसका सोना शिवलिंग के रंग का हो जाता है, काला पड़ जाता है।
प्रथम न्याय न्यूज़ सीरीज में इन्हीं मान्यताओं की कहानी जानने मैं पहुंची हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के बैजनाथ धाम मंदिर।
रात करीब 1.30 बजे का वक्त। मैं चंडीगढ़ बस स्टैंड से बैजनाथ मंदिर के लिए निकली। बस में सवार ज्यादातर लोगों को बैजनाथ मंदिर जाना है।
कुछ देर बाद मैंने लोगों से हल्की-फुल्की बातचीत शुरू की। इस दौरान एक बात मेरे ध्यान में आई। हमारी तरफ तो लोग एक दूसरे से मिलने पर राम-राम कहते हैं, लेकिन यहां किसी की जुबां पर राम का नाम नहीं है। लोग जय शंकर या जय महाकाल बोलते हैं।
पास की सीट पर बैठे युवक से मैंने पूछा यहां लोग रावण को इतना इज्जत क्यों देते हैं?
नाराजगी भरे लहजे युवक ने कहा, ‘रावण जी कहिए। मैं गुरुग्राम में नौकरी करता हूं, वहां भी दशहरा नहीं मनाता, न रावण दहन देखने जाता हूं, क्योंकि वे हमारे लिए पूज्य हैं।’
इसी बीच बस ड्राइवर बोले, ‘ मैडम… हम अपने बच्चों को राम की नहीं, रावण जी की कहानियां सुनाते हैं। उनकी वीरता के किस्से सुनाते हैं। आज तक उनके जैसा विद्वान और शक्तिशाली कोई हुआ ही नहीं।’
मन में सवाल आया कि रावण ने तो एक स्त्री के साथ गलत किया था। सीताजी का हरण किया था, फिर उसका इतना मान-सम्मान क्यों? लेकिन जहां लोग बस रावण कहने से नाराज हो जाते हों, वहां ये सवाल पूछना ठीक नहीं होता। मैं चुप रह गई।
सात घंटे के सफर के बाद सुबह 11 बजे बैजनाथ धाम पहुंच गई। थोड़ा फ्रेश होने के बाद सीधे शिव मंदिर पहुंची। मंदिर में आरती हो रही थी। आरती में शिव की स्तुति गाई गई। प्रसाद बांटा गया।
मंदिर के भीतर जमीन में धंसा हुआ शिवलिंग है। थोड़ी दूर पर गणेश, कार्तिकेय, हनुमान, पार्वती और लक्ष्मी नारायण जी की मूर्तियां हैं, लेकिन राम-सीता की कोई मूर्ति नहीं। रान नाम का कहीं जिक्र नहीं।
आरती के बाद मंदिर के पंडित संजय शर्मा से बात हुई। वे कहते हैं, ‘इस मंदिर में रावण जी की ना तो कोई मूर्ति है और ना ही उनकी पूजा होती है, लेकिन उनका दर्जा बहुत बड़ा है। देश के बाकी हिस्सों की तरह यहां उनकी छवि नहीं है।
हम बैजनाथवासी मानते हैं कि वे शिव के परमभक्त थे। चार वेदों के ज्ञाता, उनसे बड़ा विद्वान पूरी दुनिया में कोई दूसरा नहीं हुआ।’
यहां दशहरा क्यों नहीं मनाया जाता?
पंडित संजय शर्मा बताते हैं, ‘बैजनाथ में रावण जी ने तप किया था। यहां जब भी किसी ने दशहरा मनाया, एक महीने बाद उसकी मौत हो गई। अकाल मृत्यु हो गई। भगवान शिव की धरती पर उनके भक्त का दहन कोई नहीं कर सकता। महाकाल नाराज हो जाते हैं। इसलिए यह परंपरा बंद करनी पड़ी।’
मैंने सुना है यहां लोग सोने की दुकान नहीं खोलते?
पंडित संजय शर्मा बताते हैं, ‘जो भी यहां सोने की दुकान खोलता है, तीसरे दिन ही उसका सोना शिवलिंग की तरह काला पड़ने लगता है। उसे व्यापार में घाटा होने लगता है। अनहोनी होने लगती है। इसलिए कोई यहां सोने की दुकान नहीं खोलता। मैं साठ साल का हो गया, लेकिन एक भी सोने की दुकान नहीं देखी है।’
वे कहते हैं, ‘भगवान शिव ने रावण जी को सोने की लंका दान में दी थी। इसलिए कोई और सोने की दुकान नहीं खोल सकता है, अपने यहां भारी मात्रा में सोना नहीं रख सकता।’
मंदिर के एक पंडित बताते हैं कि कोई कितना भी पैसा लगा ले। कहीं से भी सोना ले आए, तीसरे दिन सोने का रंग शिवलिंग जैसा काला हो ही जाता है। बड़े-बड़े लोगों ने लाखों रुपए इंवेस्ट करके यहां सोने का व्यापार करने की कोशिश की, लेकिन तीसरे दिन उन्हें दुकान बंद करनी पड़ी।’
बैजनाथ ट्रेड वेलफेयर के अध्यक्ष विनोद नंदा कहते हैं, ‘80 के दशक की बात है। यहां एक सोने की दुकान खुली थी। जनकराज नाम व्यापारी ने यह दुकान खोली थी। वो जो भी सोना लाता, तीन दिन बाद काला पड़ जाता। उसे लगा कि उसके सोने में ही दोष है।
उसने कई जगहों से सोने लाकर आजमा लिया, लेकिन कोई फायदा नहीं। इस दौरान उसे बहुत नुकसान उठाना पड़ा। कोई अनहोनी भी उसके घर हो गई थी। इसलिए उसे दुकान बंद करनी पड़ी। वो दुकान ही यहां की आखिरी सोने की दुकान थी। उसके बाद किसी ने सोने की दुकान खोलने की हिम्मत नहीं जुटाई।’
वे कहते हैं, ‘यहां सिर्फ मंदिर के पास नहीं, बल्कि गांवों में भी लोग रावण जी ही बोलते हैं। बच्चे-बुजुर्ग सभी। हमारे यहां तो लोग अपनी दुकानों के नाम, घरों के नाम भी रावण जी के नाम पर रखते हैं। मेरे गांव में ही रावण जी के नाम से टी स्टॉल है।’
मुझे इनकी बातों पर यकीन तो नहीं होता कि सोना काला पड़ जाता है, लेकिन इनकी मान्यता इतनी मजबूत है कि मुझे यहां एक भी सोने की दुकान नहीं दिखी।
मन में सवाल उठा रावण का इतना महिमामंडन क्यों?
अश्विनी डोगरा बैजनाथ में रहते हैं। वे पूजा करने के लिए मंदिर आए हैं। कहते हैं, ‘किसी धर्म ग्रंथ में तो नहीं लिखा है कि रावण जी का सम्मान करिए, लेकिन हम बचपन से ऐसा करते आ रहे हैं।
जिसने भी दशहरा मनाया है, वो जिंदा नहीं बचा। अगर कोई दूसरा भी आदर के साथ उनका नाम नहीं लेता है, तो हमें तकलीफ होती है, गुस्सा भी आता है। क्योंकि हमारे दादा-बाबा सब उनका सम्मान करते रहे हैं।’
राम से दिक्कत क्या है?
मंदिर के पुजारी संजय शर्मा कहते हैं, ‘हमें राम से कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन हम पूजा शिव की करते हैं और स्तुति रावण की। अपने घरों में भी लोग शिव को ही पूजते हैं। त्योहार के नाम पर केवल सावन और शिवरात्री मनाई जाती है। शिव के अलावा अगर हम किसी को मानते हैं तो रावण जी को, क्योंकि वे शिवजी के भक्त थे।
हम लोगों से मिलते हैं तो शिवशंकर या जय महाकाल बोलते हैं। राम-राम कहते मैंने किसी को नहीं सुना। कुछ लोग अपने घरों में रामायण रखते हैं, लेकिन कोई उनकी जय नहीं बोलता। उनका उत्सव नहीं मनाता
त्रेता युग की बात है। रावण शिवजी का भक्त था। उसने कैलाश पर्वत पर तप किया, लेकिन शिवजी प्रसन्न नहीं हुए। तब रावण ने एक हवन कुंड बनाया। नृत्य और तांत्रिक क्रिया के बाद उस हवन कुंड में अपना एक-एक शीश चढ़ाने लगा।
9 शीश चढ़ाने के बाद भी जब शिवजी प्रसन्न नहीं हुए तो रावण अपने 10वें शीश की आहूति देने लगा। इससे देवता घबरा गए। वे शिवजी से कहने लगे कि अब कुछ कीजिए वरना रावण अजर-अमर हो जाएगा। इसके बाद शिवजी प्रकट हुए। उन्होंने राणव को ऐसा करने से रोक लिया और उसके सभी शीश वापस जीवित कर दिए। रावण ने कहा कि प्रभु मैं आपको लंका में स्थापित करना चाहता हूं। शिवजी ने इसे स्वीकार तो कर लिया, लेकिन एक शर्त भी रखी। उन्होंने कहा कि मुझे एक बार उठाने के बाद बीच में कहीं रख दोगे, तो मैं वहीं विराजमान हो जाऊंगा। रावण ने शिवजी की शर्त मान ली।
रास्ते में शिवलिंग ले जाते वक्त रावण को लघुशंका लगी। वो बैजू नाम के एक ग्वाला को शिवलिंग देकर लघुशंका के लिए चला गया। काफी देर तक जब रावण नहीं लौटा तो ग्वाला ने शिवलिंग जमीन पर रखा दिया। जब रावण वापस लौटा तो शिवलिंग को उठाने की पूरी कोशिश की, लेकिन वो शिवलिंग हिला भी नहीं सका। वो शिवजी की माया समझ गया। उसे काफी गुस्सा आया।
उसने शिवलिंग को अपने अंगूठे से बहुत तेज दबाया, जिस वजह से वह जमीन में धंस गया। आज भी यहां का शिवलिंग जमीन में धंसा हुआ है। शिवजी ने रावण के शीश ठीक किए थे, इसलिए इस मंदिर का नाम वैद्यनाथ या बैजनाथ बाबा पड़ा। लोग इसे रावणेश्वर भी कहते हैं।’’
पंडित संजय शर्मा कहते हैं, ‘भले ही इस मंदिर को 12 ज्योतिर्लिंगों में जगह नहीं मिली हो, लेकिन यहां के लोगों के लिए यह ज्योतिर्लिंग से कम नहीं है। हजारों साल से यहां लोग शिव की पूजा करते आ रहे हैं। अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने भी यहां पूजा की थी। इसको मुगलों ने तोड़ने की कोशिश की थी, जिसे बाद में कांगड़ा के राजा ने बनवाया।’’
कहीं रावण का मंदिर तो कहीं दशहरे में उतारी जाती है आरती
जोधपुर के मौदगिल में ब्राह्मण खुद को रावण का वंशज मानते हैं। वे लोग रावण दहन की बजाय उसकी आत्मा की शांति के लिए पिंडदान करते हैं।
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के एक गांव में रावण को देवताओं का पुत्र माना जाता है। उसकी पूजा की जाती है।
उज्जैन के चिकली गांव में भी रावण का पुतला नहीं जलाया जाता है।मध्य प्रदेश के मंदसौर में भी रावण की पूजा होती है। मंदसौर को रावण की पत्नी मंदोदरी का मायका माना जाता है।