कानून की रखवाली या उल्लंघन? जब पुलिस ही सोशल मीडिया पर न्याय को प्रभावित करने लगे
मध्य प्रदेश के कई जिलों में पुलिस द्वारा आरोपियों की तस्वीरें और जुलूस सोशल मीडिया पर साझा करना आम हो गया है — क्या यह कानून के खिलाफ एक खतरनाक चलन नहीं?

मध्य प्रदेश के कई जिलों में पुलिस एक नया ट्रेंड अपना रही है—आरोपियों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर साझा करना और खुलेआम जुलूस निकालना। जबलपुर, सिंगरौली, सीधी, हरदा, मंदसौर, इंदौर ग्रामीण, धार, नीमच और छतरपुर जैसे जिलों की पुलिस ने अपने आधिकारिक अकाउंट्स से हत्या, चोरी, अवैध मादक पदार्थ, और आर्म्स एक्ट जैसे मामलों के आरोपियों की तस्वीरें सार्वजनिक की हैं।
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भोपाल की घटना के बाद नरसिंहपुर में भी गोलीकांड के आरोपियों का सरेआम जुलूस निकाला गया। यहां तक कि राज्य के गृह विभाग के सोशल मीडिया अकाउंट से जयपुर बम ब्लास्ट के आरोपी की फोटो तक सार्वजनिक कर दी गई। लेकिन सवाल ये है कि क्या ये शोहरत और वाहवाही बटोरने की होड़ न्याय प्रक्रिया को नुकसान पहुँचा रही है।
एक चौंकाने वाला मामला सिवनी से सामने आया, जहाँ पुलिस अधीक्षक ने एक नाबालिग से दुष्कर्म के मामले में पीड़िता के पिता का नाम प्रेस नोट में उजागर कर दिया। सुप्रीम कोर्ट और पॉक्सो एक्ट के अनुसार, नाबालिग पीड़िता की पहचान किसी भी रूप में उजागर करना कानूनन अपराध है। ऐसे में खुद पुलिस द्वारा ऐसा कृत्य करना गंभीर सवाल खड़े करता है।
कानूनी विशेषज्ञ अधिवक्ता मोहम्मद अली का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने पहले ही स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि आरोपी की पहचान सार्वजनिक नहीं की जानी चाहिए, खासकर तब जब उसकी पहचान कोर्ट में शिनाख्त परेड के माध्यम से होनी हो। सोशल मीडिया पर पहले ही फोटो जारी कर देने से शिनाख्त परेड बेमानी हो जाती है, जिससे आरोपी को कोर्ट में फायदा मिल सकता है।
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में यह भी माना कि अगर आरोपी को पहले ही थाने या सोशल मीडिया में दिखा दिया गया हो, तो बाद में की गई शिनाख्त परेड वैध नहीं मानी जाएगी। इसी आधार पर एक हत्या के आरोपी को बरी भी कर दिया गया था।
इस पूरे मामले में सबसे अहम सवाल यही है कि क्या कानून की रखवाली करने वाली संस्था खुद कानून का उल्लंघन कर रही है? और यदि हां, तो क्या उन अधिकारियों पर भी उसी सख्ती से कार्यवाही की जाएगी, जैसी आम नागरिकों पर होती है।