रीवा

जानिए विंध्य में सफेद शेर की किसने और कैसे की थी खोज जानें पूरा सच

देश में सबसे पहले दुर्लभ सफेद बाघ की ऐसे हुई थी खोज रीवा में मिला था पहला सफेद बाघ 

सफेद बाघ को महाराजा मार्तंड सिंह ने 27 मई, 1951 को सीधी जिले के बरगाड़ी के लिए स्था-क्षेत क्षेत्र से पकड़ा था और बाद में जानवर को रीवा के गोविंदगढ़ पैलेस में लाया गया, जहाँ से वह अगले दिन भाग निकला और फिर रीवा से लगभग 27 किमी दूर मुकुंदपुर क्षेत्र में पाया गया। तब मोहन दो दशकों तक इस क्षेत्र में रहा और इसकी संतानें धीरे-धीरे दुनिया के अन्य हिस्सों में फैल गईं

जानिए विंध्य में सफेद शेर की किसने और कैसे की थी खोज जानें पूरा सचसफेद बाघ है दुर्लभ प्रजाति का बाघ 

बाघों की प्रजाति में सफेद बाघों की अपनी अलग पहचान है। दुनिया में वर्तमान में जहां भी सफेद बाघ हैं, उन सबका डीएनए विंध्य और रीवा से जुड़ा हुआ है।

पहला जीवित सफेद बाघ मोहन के रूप में पकड़े जाने का दावा है। बात 27 मई 1951 की है जब सीधी जिले के कुसमी क्षेत्र के पनखोरा गांव के नजदीक जंगल में बाघिन का शिकार करने महाराजा मार्तण्ड सिंह के साथ शाही मेहमान जोधपुर के महाराजा अजीत सिंह पहुंचे थे।

तीन शावक तो जंगल की ओर भाग गए लेकिन सफेद रंग वाला वहीं पर एक गुफा में छिप गया। जिसे मारने के बजाय मार्तण्ड सिंह ने पकडऩे की योजना बनाई। पिंजड़ा लगाकर उसे पकड़ा गया। मोहन को पकडऩे से लेकर आखिरी सांस तक के केवल एक ही गवाह के रूप में पुलुआ बैरिया बचे हैं।

बात 1951 की है जब महाराजा मार्तण्ड सिंह गोविंदगढ़ किले में बाघ को लेकर आए। पूरा क्षेत्र देखने के लिए उमड़ रहा था, मैं भी बालक था तो सबके साथ गया। परिवार के कुछ लोग किले में काम करते थे, वह जब बाघ को भोजन देने के लिए जाते तो मैं भी नजदीक से देखने की उत्सुकता के लिए जाता।

कम उम्र का होने के चलते बाघ की नजर हमारी तरफ अधिक रहती थी। महाराजा को पता चला तो उन्होंने हमारी ड्यूटी ही मोहन की सेवा में लगा दी। उसके बाद से लगातार सेवाएं देते रहे। बाघ का नाम मोहन रखा गया, वह जंगल का राजा होता है तो हम सब राजा की तरह ही उसे सम्मान देते थे।

जितने केयर टेकर थे मोहन के 

सब मोहन सिंह इधर आइए मोहन सिंह उधर जाइए, इस तरह की सम्मानित भाषा का प्रयोग करते थे। हम सब के अलावा मोहन किसी को नजदीक से जानते थे तो वह थे महाराजा मार्तण्ड सिंह।

अक्सर दोपहर के बाद महाराजा फुटवाल लेकर मोहन के बाड़े के पास पहुंचते थे। ऊपर छत पर बैठकर वह बाड़े की दीवाल की ओर बाल फेंकते तो मोहन उसे पकडऩे के लिए दौड़ते थे।

यह दृश्य बहुत ही आकर्षक होता था। कई बार तो ऐसे भी अवसर आए जब महाराजा ने मोहन के नजदीक तक जाकर सिर पर हाथ फेरा। सुबह नौ बजे मांस देने का समय होता था, इसमें थोड़ा सा भी विलंब होने पर मोहन दहाड़ लगा देते, मतलब पूरा किला सक्रिय हो जाता था।
रविवार के दिन मोहन खाना नहीं खाते थे, शुरुआत में इसे सामान्य रूप में लिया गया लेकिन जब लगातार वह उस दिन मांस देने के बाद नहीं खाते थे, तो महाराजा ने कहा कि इस दिन मांस नहीं दिया जाए।

इसके बाद से दो लीटर दूध उस दिन दिया जाने लगा। बाद में बीमार होने पर इंग्लैंड के डॉ. वेल्सन ने लंबे समय तक देखरेख की और उन्होंने नए सिरे से आहार की मात्रा निर्धारित की थी। एक बार तो दूसरे केयर टेकर ने बाड़े के भीतर जाने वाले दरवाजे को बंद ही नहीं किया

भोजन देने की तैयारी चल रही थी कि मोहन उसी स्थान पर आकर खड़े हो गए, पीछे से उनके छूने का एहसास हुआ तो एक झटके में मन दहशत में भर गया। लेकिन कोई हरकत किए बिना इशारा किया कि बाड़े में चालिए, तो वह चले गए। अन्यथा बाहर निकलने का रास्ता खुला था, उस दिन कोई बड़ा हादसा हो सकता था। मौत से कुछ समय पहले मोहन के पैर में उनके लकवा मार गया था।

हम सब आखिर तक देखरेख करते रहे। 10 दिसंबर 1969 को मोहन का निधन हो गया, वह जीवन का सबसे बड़ा सदमा था, जिसे आज तक नहीं भूला। कोई भी सफेद बाघ देखता हूं तो मोहन की याद ताजा हो जाती है।

राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार 

मोहन की मौत की जानकारी देते समय केयर टेकर पुलुआ की भी आंखें भर आई। उन्होंने बताया कि उस दिन रीवा में राजकीय शोक घोषित किया गया था। बांधवगद्दी के राजसी ध्वज में पार्थिव शरीर ढंका गया। बंदूकें झुकाकर सलामी दी गई।

पुलुआ के अनुसार उस दिन महाराजा मार्तण्ड सिंह ने कहा था कि आज हमने अपनी बहुमूल्य धरोहर खो दी है। मौत के कई घंटे तक महाराजा एकांत में रहे। कहा जाता है कि किसी बाघ या अन्य जानवर को मरने के बाद इस तरह सम्मान इसके पहले और अब तक नहीं मिला है। कई दिनों तक शोक सभाएं हुई।

किले से भागकर मुकुंदपुर में ली शरण 

पुलुआ बताते हैं कि गोविंदगढ़ किले में मोहन को रखे दो दिन का ही समय हुआ था कि रात्रि में दीवाल फांदकर वह भाग निकले। महाराजा ने चारों ओर तलाश कराई तो मुकुंदपुर के मांद रिजर्व क्षेत्र के जंगल में मिले। वह क्षेत्र बाघों के लिए प्रिय माना जाता है अब वहीं पर टाइगर सफारी और चिडिय़ाघर बना दिया गया है। इसके पहले अन्य बाघ भी इस क्षेत्र में रहते थे।
राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार 

मोहन की मौत की जानकारी देते समय केयर टेकर पुलुआ की भी आंखें भर आई। उन्होंने बताया कि उस दिन रीवा में राजकीय शोक घोषित किया गया था। बांधवगद्दी के राजसी ध्वज में पार्थिव शरीर ढंका गया। बंदूकें झुकाकर सलामी दी गई।

पुलुआ के अनुसार उस दिन महाराजा मार्तण्ड सिंह ने कहा था कि आज हमने अपनी बहुमूल्य धरोहर खो दी है। मौत के कई घंटे तक महाराजा एकांत में रहे। कहा जाता है कि किसी बाघ या अन्य जानवर को मरने के बाद इस तरह सम्मान इसके पहले और अब तक नहीं मिला है। कई दिनों तक शोक सभाएं हुई।

जानिए विंध्य में सफेद शेर की किसने और कैसे की थी खोज जानें पूरा सचऐसा रहा मोहन का सफर 

27 मई 1951 को सीधी जिले के कुसमी क्षेत्र के पनखोरा गांव के नजदीक जंगल में पकड़ा गया। सफेद शावक मोहन को गोविंदगढ़ किले में रखा गया।
1955 में पहली बार सामान्य बाघिन के साथ ब्रीडिंग कराई गई, जिसमें एक भी सफेद शावक नहीं पैदा हुए।
30 अक्टूबर 1958 को मोहन के साथ रहने वाली राधा नाम की बाघिन ने चार शावक जन्मे, जिनका नाम मोहिनी, सुकेशी, रानी और राजा रखा गया।
19 वर्षों तक जिंदा रहे तीन मादाओं के साथ मोहन के संसर्ग गोविंदगढ़ में लगातार सफेद शावक पैदा होते गए। मोहन से कुल 34 शावक जन्मे, जिसमें 21 सफेद थे। इसमें 14 राधा अकेले नाम की बाघिन के थे।

गोविंदगढ़ किले में 6 सितंबर 1967 को मोहन और सुकेशी से चमेली जन्मी और 17 नवंबर 1968 को विराट नाम का सफेद शावक जन्मा।
10 दिसंबर 1969 को मोहन की मौत के बाद गोविंदगढ़ किला परिसर में ही राजकीय सम्मान के साथ दफनाया गया।
1972 में मोहन की मौत के बाद सुकेशी नाम की बाघिन को दिल्ली के चिडिय़ाघर भेजा गया।
1973 में चमेली को लेकर मोहन के केयर टेकर पुलुआ बैरिया को भी दिल्ली बुला लिया गया। 2003 तक दिल्ली के चिडिय़ाघर में उन्होंने सेवाएं दी।

8 जुलाई 1976 को आखिरी बाघ के रूप में बचे विराट की भी मौत हो गई। इसके बाद 40 साल तक सफेद शेरों से रीवा वीरान रहा।
9 नवंबर 2015 को ह्वाइट टाइगर सफारी में विंध्या को लाया गया, वर्तमान में चार सफेद और तीन पीले बाघ हैं

ऐसे बढ़ाया हमारा गौरव

मोहन और उसके वंशज सफेद बाघों ने कई अवसरों पर रीवा सहित पूरे विंध्य का गौरव बढ़ाया है। दुनिया में जहां भी सफेद बाघ हैं, उनके वंशजों की चर्चा होगी तो इस क्षेत्र का नाम जरूर लिया जाएगा।

वर्तमान में दुनिया की पहली ह्वाइट टाइगर सफारी जो अब तक इकलौती ही मुकुंदपुर में है। 25 हेक्टेयर क्षेत्रफल जंगल में सफेद बाघों को खुले में रखा गया है, ताकि वह जंगल के वातावरण का एहसास कर सकें। 

समाचार

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button