राम रहीम खून की कहानी में हैं मास्टर माइंड सबसे पहले देखें हमारे साथ

राम रहीम के शूटर्स ने पापा को 5 गोलियां मारी 28 दिन बाद मौत, अब लोग मुझसे पूछ रहे… तुम्हें डर नहीं लगता
24 अक्टूबर 2002, शाम के साढ़े सात बजे थे। पापा जल्दी ऑफिस से आ गए थे। मां गांव में किसी के घर गई थी। बहन खाना बनाने की तैयारी कर रही थी। इसी बीच किसी ने बाहर से आवाज दी। पापा उठकर गए, उनके पीछे-पीछे मैं भी
आइए खबर विस्तार से देखें
सामने बंदूक लिए दो लोग खड़े थे। हम कुछ समझते उससे पहले ही पापा के सीने में दो गोलियां मार दी। पापा नीचे गिरे और बचने की कोशिश करने लगे। तभी दो गोली पीठ पर और एक गोली गर्दन में दाग दी।
हम उन्हें अस्पताल ले गए। 28 दिन बाद पापा मौत से जंग हार गए। 17 साल हमने न्याय के लिए लड़ा। अब लोग पूछते हैं डर तो नहीं लगता
मैं अंशुल छत्रपति, हरियाणा के सिरसा के पत्रकार रामचंद्र छत्रपति का बेटा हूं, जिनका कत्ल डेरा सच्चा सौदा के मुखिया राम रहीम ने कराया था।
पापा का कसूर बस इतना था कि वे डेरा सच्चा सौदा की काली करतूतों को पर्दाफाश कर रहे थे। उन्हें हर दिन जान से मारने की धमकी मिल रही थी, लेकिन पापा डरे नहीं। अकेले मैदान में डटे रहे।
हाल ही में राम रहीम पैरोल पर जेल से बाहर आया था। हो सकता है किसी दिन उसे बेल भी मिल जाए। मैं जानता हूं दुश्मन ताकतवर है, कल को मुझे नुकसान भी पहुंचा सकता है, लेकिन मुझे डर नहीं लगता।
जिसके पिता को उसके सामने 5 गोलियां मारी गई हों, उसके दिल में दर्द इतना है कि डर के लिए जगह ही नहीं बची।
6पापा बहुत मजाकिया थे। हमेशा हंसते रहते थे, लेकिन सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को लेकर बहुत संजीदा थे, मुखर थे। वे एक जुनूनी पत्रकार थे। दूसरों के हक के लिए सड़कों पर उतरने वाले। उन्हें रुपए-पैसे से कोई लेना देना नहीं था। बस घर चल जाए, इतना ही उनके लिए काफी था।
हमारी अच्छी खासी खेती है। मां भी खेती करती है। दादा और ताऊ पापा को बहुत डांटते थे कि कोई ढंग का काम कर लो, परिवार पालो, घरबार संभालो, पैसे कमाओ, लेकिन पापा किसी की नहीं सुनते।
पापा ने लॉ की पढ़ाई की थी। पत्रकारिता से पहले सिरसा बार एसोसिएशन में बतौर वकील प्रैक्टिस करते थे। वे कभी किसी से काम के पैसे ही नहीं लेते थे। इस पर दादा से उन्हें हर दिन डांट मिलती रहती थी।
मैं उस वक्त 16 साल का था जब पापा ने वकालत छोड़कर अलग-अलग अखबारों में कॉलम लिखना शुरू किए। इसके बाद एक अखबार के रिपोर्टर बन गए।
अब पापा के पास बिल्कुल भी समय नहीं था। न मेरी पढ़ाई के बारे में जानने का न घर-परिवार के लिए। अगर वे कुछ पढ़ रहे होते या लिख रहे होते, तो किसी की हिम्मत नहीं होती कि कोई उनसे कुछ पूछ दे।
उन्हें अखबारों की कतरन इकट्ठा करने का बहुत शौक था। आज भी मेरे पास सैकड़ों कतरनों के बंडल रखे हैं। राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर लिखे एडिटोरियल की कटिंग रख लिया करते थे। धीरे-धीरे पापा का प्रमोशन होते गया।
एक दिन उनके अखबार के एडिटर छुट्टी पर गए थे। उस दिन पापा को इंचार्ज मिला। पापा ने सरकार से सवाल पूछते हुए एडिटोरियल लिखा। अगले दिन संपादक ने पापा को काफी डांटा और कहा कि हर अखबार में कुछ न कुछ लाइन ऑफ कंट्रोल होता है।
इसपर पापा को गुस्सा आ गया। उन्होंने मेज पर हाथ मारा कहा कि अब अपना अखबार शुरू करुंगा जिसमें जीरो लाइन के उस पार जाकर भी लिखा जाएगा और रिजाइन कर दिया।
इसके बाद 2000 में पापा ने अपना अखबार ‘पूरा सच’ शुरू किया। पापा ने सरकार के खिलाफ धुंआधार रिपोर्टिंग की।
उनकी रिपोर्ट्स के बाद सरकार को अपने कुछ फैसले वापस लेने पड़े। मसलन चौटाला हाउस उस वक्त सीएम हाउस हुआ करता था। जिसके पास की एक गली पर कब्जा था। पापा की रिपोर्टिंग के बाद वह गली छोड़नी पड़ी।
इसी तरह अनाज मंडी में पेशाब खाने की जगह दुकानें बना दी गईं, पापा की रिपोर्ट के बाद दुकानें वहां से हटाकर फिर से पेशाब घर बनाना पड़ा।
1990 की बात है। सिरसा में कुछ पत्रकारों के पास एक गुमनाम चिट्ठी पहुंची। उसमें डेरा सच्चा सौदा के बारे में लिखा था कि किस प्रकार वहां साध्वियों का यौन शोषण हो रहा है। इस चिट्ठी के बाद पत्रकारों के बीच हल्ला मच गया। हर कोई इसके आधार पर सबूत जुटाने में लग गया।
डेरे के लोगों को जैसे ही पता लगता कि कोई चिट्ठी का फोटो कॉपी करा रहा या कहीं सर्कुलेट कर रहा, उसे वे मारने लगते। ऑफिस तोड़ देते। दुकान तहस-नहस कर देते।
पापा ने इन सभी घटनाओं को रिपोर्ट करना शुरू किया। धीरे-धीरे पापा के कॉन्टैक्ट सोर्स बढ़ने लगे। उन्हें अंदर की सूचनाएं मिलने लगीं।
इससे डेरे के भीतर खलबली मचने लगी। इसके बाद धमकियों का दौर शुरू हुआ। हर दिन नई-नई धमकियां मिलती। कभी जान से मारने की, कभी मां-बेटी की रेप की तो कभी लालच भी।
परिवार के लोग परेशान थे। हमें डर लगता था कि किसी दिन कोई अनहोनी ना हो जाए, पर पापा किसी की सुनते नहीं थे।
इसी बीच वह गुमनाम चिट्ठी पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट पहुंची। अदालत ने उसपर खुद से संज्ञान लेते हुए सिरसा सेशन जज से इसकी जांच के आदेश दिए।
सेशन जज ने कहा कि बेहतर होगा जांच किसी स्वतंत्र एजेंसी को सौंपी जाए। अब तक डेरा साध्वियों के परिवारों से एफिडेविट ले चुका था कि साध्वियां अपनी मर्जी से डेरे में रह रही हैं।
एक दिन पापा ने डेरे के खिलाफ एडिटोरियल लिखा, जिसे फतेहाबाद के एक अखबार ने ज्यों का त्यों छाप दिया। उसके बाद डेरे के लोगों ने उस अखबार का दफ्तर तोड़ दिया, पेट्रोल लेकर संपादक को ढूंढने लगे कि इन्हें जिंदा जला देंगे।
संपादक अपने परिवार के साथ कई दिनों तक गायब रहे। पापा ने इस घटना को पूरे पेज पर प्रकाशित किया। इसके बाद वे लगातार एक-एक करके डेरे पर रिपोर्ट करते रहे।
डेरे ने पापा को रोकने की सारी कोशिशें कर ली। फिर उन्होंने पापा पर झूठा इलजाम भी लगवाया कि उन्होंने एक दलित को जाति सूचक शब्द बोला है।
उस दिन मेरी बुआ के बेटे की शादी थी। हमने कोर्ट के सामने सबूत के तौर पर शादी का कार्ड और फोटो पेश किया और आरोप गलत साबित हो गया।
उधर पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में डेरे ने अपने बचाव के लिए जो याचिका लगाई थी वह खारिज हो गई। डेरा चारों ओर से घिरता जा रहा था।
एक दिन किसी ने पापा को बाहर से आवाज दी। पापा बाहर गए, मैं भी पापा के पीछे गया कि कौन आया है। देखा कि सामने बंदूक लिए दो लोग खड़े हैं।
उन्होंने पापा को मेरे सामने दो गोलियां मारी। इसके बाद उन्होंने तीन गोलियां पीठ और कंधे पर मारी। मेरे दिमाग में सबसे पहले यही आया कि इसी दिन का डर था।
मारने के बाद दोनों अलग-अलग दिशा में भागे। उनमें से एक पुलिस चौकी की तरफ भागा। उसे नहीं पता था कि उस तरफ पुलिस चौकी है। वह सालों से बंद पड़ी बर्फ फैक्ट्री की दीवार फांद कर उसके पीछे बनी झोंपड़ी में छिपना चाह रहा था।
तभी उसे एक महिला ने देख लिया। उसने सोचा चोर है और शोर मचाना शुरू कर दिया। इतने में पुलिस आ गई। पुलिस ने उसके पास से रिवॉल्वर बरामद किया। थोड़ी देर बाद दूसरा शूटर भी गिरफ्तार हो गया।
पूछताछ में पता लगा कि जिस रिवॉल्वर से पापा की हत्या की गई थी, वो डेरा सच्चा सौदा के मैनेजर के नाम पर है। एक वॉकी-टॉकी भी मिला, वो भी डेरे के नाम पर ही था।
उधर मैं पड़ोसी की गाड़ी लेकर पापा को सिविल अस्पताल ले गया। डॉक्टरों ने रोहतक पीजीआई रेफर करने में ही डेढ़ घंटा लगा दिया।
हम रोहतक नहीं जाना चाहते थे, क्योंकि हमें डेरे के लोगों से डर था। हमने डॉक्टरों से कहा कि हमें चंडीगढ़ पीजीआई रेफर कर दें, लेकिन ऐसा हुआ। मजबूरन हमें रोहतक पीजीआई ले जाना पड़ा। पापा वहां आठ दिन तक एडमिट रहे।
वे धीरे-धीरे ठीक हो रहे थे। बातचीत भी करने लगे थे। आठवें दिन मैं बुआ के बेटे को अस्पताल में छोड़कर कुछ काम से सिरसा आ गया। उसी रात बुआ के बेटे का फोन आया कि पापा की तबीयत खराब हो रही है।
मैं सिरसा से कुछ पैसों का इंतजाम करके सीधे रोहतक पीजीआई गया। वहां से हम पापा को दिल्ली के अपोलो अस्पताल ले गए।
छोटे भाई ने FIR करवाई तो पुलिस डेरे के खिलाफ एक शब्द लिखने के लिए तैयार नहीं थी। डेरे की सत्ता, पुलिस प्रशासन से लड़ना आसान नहीं था। मैंने जिद पकड़ ली कि FIR में राम रहीम का नाम लिखवाकर ही रहूंगा।
इधर पत्रकार हर दिन आंदोलन कर रहे थे। उन पर सरकार की तरफ से दबाव भी बनाया जा रहा था। सीएम ने हमें भरोसा भी दिया कि जांच की जाएगी।
दोषियों को छोड़ेंगे नहीं, लेकिन पुलिस शूटर्स के बयानों को तोड़-मरोड़कर पेश कर रही थी। हमें प्रॉपर्टी विवाद में भी फंसाया गया। यह भी थ्योरी गढ़ी गई कि प्रॉपर्टी विवाद में इनके करीबियों ने ही हत्या की है।
हमने अदालत का दरवाजा खटखटाया और सीबीआई जांच की मांग की। पुलिस कह रही थी कि सीबीआई जांच की जरूरत नहीं है। खैर अदालत ने हमारी बात मानी। हमारी याचिका पर अदालत ने 10 नवंबर 2003 को सीबीआई जांच के आदेश दिए।
पापा बरगद थे, जिसकी छांव किसी के भी होने से नहीं मिल सकती है। पापा को न्याय दिलवाना मेरा मिशन था। अब भी मुझे डर नहीं लगता है।
चाहे राम रहीम को बेल मिल जाए, वह अंदर रहे या बाहर। जो मेरे पिता के साथ हुआ राम रहीम को उसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। पापा की हत्या ही मुझे उसके खिलाफ लड़ने की ताकत दे रही है।